जल का विस्मरण : आधुनिकता, अहंकार और सूखती हुई धरती

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– डॉ सत्यवान सौरभ
भारत के समकालीन संकटों में जल सबसे अधिक चर्चित है, पर सबसे कम समझा गया भी। सूखा, बाढ़, गिरता भूजल, प्रदूषित नदियाँ—इन सबको हम अलग-अलग घटनाओं की तरह देखते हैं, जबकि ये एक ही कहानी के अलग अध्याय हैं। यह कहानी प्राकृतिक आपदा की नहीं, बल्कि मानवीय विस्मृति की है। हमने जल को केवल संसाधन समझ लिया और उसके साथ जुड़ी स्मृति, संस्कार और संवेदना को त्याग दिया।
बाँध बनाकर पानी को ज़मीन के ऊपर रोकने का विचार आधुनिक विकास की सबसे बड़ी भ्रांतियों में से एक है। यह व्यवस्था प्रकृति के स्वभाव के विरुद्ध खड़ी की गई है। जल का स्वभाव ठहरना नहीं, उतरना है—धरती की कोख में समाना, वहाँ से जीवन को पोषित करना। तालाब, जोहड़, कुएँ और बावड़ियाँ इसी स्वभाव की अभिव्यक्ति थे। वे पानी को रोकते नहीं थे, सहेजते थे। यही कारण है कि वे समय-सिद्ध और स्वयं-सिद्ध व्यवस्थाएँ थीं, जिन्होंने लाखों वर्षों तक मानव सभ्यता का साथ दिया।
आज हम बाँधों को विकास का प्रतीक मानते हैं, जबकि तालाबों को पिछड़ेपन की निशानी समझते हैं। यह दृष्टि का पतन है। एक समय पंजाब में सत्रह हज़ार से अधिक तालाबों का उल्लेख मिलता है। वे केवल जलस्रोत नहीं थे, बल्कि सामुदायिक जीवन के केंद्र थे—पशुओं, खेतों, पक्षियों और मनुष्यों को जोड़ने वाले जीवित स्थल। आज स्थिति यह है कि तालाब तो दूर, पंजाब में शामलात ज़मीनों तक का समुचित रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं। जब स्मृति मिटा दी जाती है, तो संकट अपरिहार्य हो जाता है।
हमारे पुरखे जानते थे कि बाढ़ विनाश नहीं, अवसर है। वे जानते थे कि यदि बाढ़ का पानी फैलकर तालाबों, जोहड़ों और मैदानों में उतरे, तो वही पानी धरती को पुनर्जीवित करेगा। इसलिए तालाबों से मिट्टी निकालने की परंपराएँ थीं—कोई इसे श्रमदान कहता था, कोई सामाजिक कर्तव्य। तालाब गहरे होते थे, उनकी कोख विस्तृत होती थी और वे वर्षा के अधिकतम जल को आत्मसात कर लेते थे। यह एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें तकनीक नहीं, समझ काम करती थी।
विडंबना यह है कि जिन हाथों ने तालाबों को पाटा, जोहड़ों को भर दिया और कुओं को कचरे से बंद कर दिया, वही हाथ आज पानी के लिए आसमान की ओर देख रहे हैं। तालाबों को मारने वाले जब स्वयं मरने लगते हैं, तो दोष प्रकृति पर, जलवायु परिवर्तन पर या पूर्वजों पर मढ़ दिया जाता है। आत्मालोचना का साहस अब दुर्लभ होता जा रहा है।
यह संकट केवल जल का नहीं, शिक्षा का भी है। मैं अक्सर सोचता हूँ कि ठीक से शिक्षित होने का अर्थ क्या है। क्या यह केवल डिग्रियाँ, आंकड़े और तकनीकी शब्दावली है? नहीं। ठीक से शिक्षित होने का अर्थ है सामवेदी होना—भगवत्ता द्वारा प्रदत्त पूरे इकोसिस्टम से एकात्म होना। जब मनुष्य स्वयं को प्रकृति से अलग मानने लगता है, तब उसका ज्ञान चतुराई बन जाता है और चतुराई अंततः विनाश की ओर ले जाती है। शेष सब तो बकलोली के ही परिष्कृत रूप हैं।
देश में जल-प्रबंधन की स्थिति का अंदाज़ा इसी एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज तक ऐसा कोई विस्तृत, विश्वसनीय और समग्र सर्वेक्षण नहीं हो सका है, जिससे यह पता चले कि भारत में वास्तव में कुल जल कितना है। हम योजनाएँ बनाते हैं, बजट स्वीकृत करते हैं और घोषणाएँ करते हैं—बिना यह जाने कि आधार क्या है। यह नीति नहीं, अनुमान है; और अनुमान पर खड़ा विकास देर-सवेर ढहता ही है।
भूजल-दोहन की तस्वीर तो और भी भयावह है। पंजाब में लगभग साढ़े सत्रह लाख और हरियाणा में लगभग नौ लाख सबमर्सिबल धरती के गर्भ से पानी उलीच रहे हैं। धरती मानो सबमर्सिबलों की शर-शय्या पर लेट चुकी है। बिना किसी इच्छा-मृत्यु के वरदान के, हम उसे प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा मार रहे हैं। यह हरियाली की कीमत पर रची गई एक मौन त्रासदी है, जो आने वाले समय में विकराल रूप धारण करेगी।
पर्यावरण की कीमत पर होने वाला विकास उसी डाल पर बैठने जैसा है, जिसे हम स्वयं काट रहे हैं। यह स्थिति कालिदास की कथा की याद दिलाती है—जहाँ मूर्खता को विद्वत्ता का आवरण ओढ़ा दिया जाता है। चौड़ी सड़कें, ऊँची इमारतें और चमकदार परियोजनाएँ हमें प्रगति का भ्रम देती हैं, जबकि भीतर से ज़मीन सूख रही होती है। यह विकास नहीं, सजाया हुआ विनाश है।
शहर इस विफलता के सबसे स्पष्ट उदाहरण हैं। आधुनिक विद्या-केन्द्रों और नीति-निर्माताओं के पास आज भी कोई समग्र दृष्टि नहीं है, जिसके अनुसार भारतीय शहरों में जल-निकासी, जल-संरक्षण, गंदगी के उत्पादन में कमी और उत्पन्न गंदगी के उपयोग का कोई राष्ट्रीय ढाँचा हो। बारिश में शहर डूबते हैं और गर्मियों में वही शहर प्यास से कराहते हैं। यह विरोधाभास व्यवस्था की नहीं, दृष्टि की असफलता का प्रमाण है।
नदियों की हालत इस कहानी का सबसे मार्मिक अध्याय है। प्रदूषित नदियों की सूची इतनी लंबी हो चुकी है कि उसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो हम किसी मृतकों की नामावली देख रहे हों। जिन नदियों ने सभ्यताओं को जन्म दिया, आज वे हमारी लापरवाही की शिकार हैं। हम उन्हें माँ कहते हैं, पर व्यवहार ऐसा करते हैं मानो वे अनंत सहनशील हों। यह सांस्कृतिक पाखंड अब अपनी सीमा पर पहुँच चुका है।
अभी कुछ ही दशक पहले तक भारत के शहर, गाँव, चरागाहें, खेत, जंगल, तालाब, कुएँ और बावड़ियाँ जीवन से भरे हुए थे। यह कोई आदर्शीकृत अतीत नहीं, बल्कि सामाजिक स्मृति का तथ्य है। उस समय संसाधन सीमित थे, पर समझ व्यापक थी। समुदाय था, सहभागिता थी और प्रकृति के साथ सहजीवन का भाव था। सरकारी विकास कार्यक्रमों ने इस सामाजिक चरित्र को छिन्न-भिन्न कर दिया। योजनाएँ बढ़ीं, पर समाज सिकुड़ गया।
आज आवश्यकता इस बात की है कि जल-प्रबंधन को केवल इंजीनियरों और योजनाकारों के हवाले न छोड़ा जाए। यह प्रश्न तकनीकी से अधिक नैतिक और सांस्कृतिक है। तालाबों का पुनर्जीवन, जोहड़ों की वापसी, वर्षा-जल संचयन और सामुदायिक भूमि की रक्षा—ये सब भविष्य की खोज नहीं, अतीत की स्मृति हैं। हमें पीछे लौटना नहीं, बल्कि याद करना है।
जल कोई वस्तु नहीं, एक संबंध है—मनुष्य और प्रकृति के बीच। जब यह संबंध टूटता है, तो आपदाएँ जन्म लेती हैं। समय अभी भी है, पर चेतावनी स्पष्ट है। यदि हमने जल के साथ अपना रिश्ता नहीं सुधारा, तो इतिहास हमें उस पीढ़ी के रूप में याद रखेगा, जिसने अपनी ही धरती को प्यास से मार दिया।
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