भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमाला पर मंडराता अस्तित्व का संकट
अरावली केवल एक पर्वतमाला नहीं है। यह उत्तर-पश्चिम भारत की जीवनरेखा, जल सुरक्षा की रीढ़ और मरुस्थलीकरण के विरुद्ध अंतिम प्राकृतिक दीवार है। लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली पहाड़ियों की एक संकीर्ण और ऊँचाई-आधारित परिभाषा को स्वीकार किए जाने के बाद इस प्राचीन पर्वतमाला का भविष्य गंभीर खतरे में पड़ गया है। 20 नवंबर 2025 को दिए गए निर्णय में अदालत ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए अरावली पहाड़ियों को केवल उन्हीं भू-आकृतियों तक सीमित कर दिया है जिनकी स्थानीय ऊँचाई 100 मीटर या उससे अधिक है। विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों का कहना है कि इस परिभाषा से अरावली क्षेत्र का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा संरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएगा, जिससे बड़े पैमाने पर खनन का रास्ता खुल सकता है।इसकी दो अरब वर्ष पुरानी भू-संरचना वर्षा जल को प्राकृतिक रूप से संचित कर भूजल रिचार्ज करती है, जिससे नदियाँ, झीलें और aquifers जीवित रहते हैं। यहाँ के शुष्क पर्णपाती वन वातावरण में नमी बनाए रखते हैं, तापमान और वर्षा चक्र को नियंत्रित करते हैं तथा दिल्ली-NCR सहित आसपास के क्षेत्रों के लिए प्राकृतिक प्रदूषण-रोधी “ग्रीन लंग्स” का काम करते हैं। अरावली हजारों ज्ञात-अज्ञात प्रजातियों, औषधीय पौधों, पक्षियों और वन्यजीवों का आवास है, जिनका अस्तित्व एक-दूसरे से जुड़ी खाद्य शृंखलाओं और सूक्ष्म जैविक प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है। खनन और वनों के विनाश से यह संतुलन टूटता है, जिससे मिट्टी क्षरण, जल संकट, कृषि गिरावट, मानव-वन्यजीव संघर्ष और गंभीर पर्यावरणीय अस्थिरता पैदा होती है; इसलिए अरावली का संरक्षण केवल प्रकृति की रक्षा नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के जीवन, स्वास्थ्य और भविष्य की सुरक्षा का प्रश्न है। अरावली सिर्फ अतीत की विरासत नहीं, भविष्य की गारंटी है।
अगर हम आज अरावली को नहीं बचा पाए, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी। यह लड़ाई अरावली की नहीं, भारत की है।
मरुस्थल को रोकने वाली अंतिम दीवार
करीब दो अरब वर्ष पुरानी अरावली पर्वतमाला थार मरुस्थल को पूर्व की ओर फैलने से रोकती है। राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली-एनसीआर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए यह एक प्राकृतिक ढाल की तरह कार्य करती है। बीते दशकों में अत्यधिक खनन के कारण अरावली में कई जगहों पर दरारें और “ब्रिच” बन चुकी हैं, जिनसे थार की धूल दिल्ली-एनसीआर तक पहुँच रही है। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि यदि अरावली की निरंतरता टूटी, तो मरुस्थलीकरण की गति और तेज़ होगी।
जल संकट की गहराती आहट
अरावली क्षेत्र उत्तर-पश्चिम भारत का एक प्रमुख भूजल रिचार्ज ज़ोन है। वैज्ञानिक आकलनों के अनुसार, अरावली की चट्टानें प्रति हेक्टेयर लगभग 20 लाख लीटर वर्षा जल को जमीन में समाहित करने की क्षमता रखती हैं। लेकिन खनन के चलते कई क्षेत्रों में भूजल स्तर 1000 से 2000 फीट तक नीचे चला गया है। नई परिभाषा के बाद यदि और पहाड़ियाँ खनन के लिए खोली गईं, तो यह जल संकट भयावह रूप ले सकता है।
वन, वर्षा और प्रदूषण नियंत्रण
अरावली के जंगल न केवल वर्षा चक्र को संतुलित करते हैं, बल्कि हवा की गति नियंत्रित कर तापमान और आर्द्रता बनाए रखते हैं। दिल्ली-एनसीआर के लिए ये वन प्राकृतिक ग्रीन लंग्स का काम करते हैं, जो प्रदूषण को रोकने और तापमान को नियंत्रित करने में सहायक हैं। हरियाणा, जहाँ पहले ही देश का सबसे कम वन क्षेत्र (लगभग 3.6 प्रतिशत) बचा है, इस फैसले से और अधिक हरित क्षेत्र खो सकता है, क्योंकि अधिकांश वन क्षेत्र 100 मीटर से कम ऊँचाई पर स्थित हैं।
जैव विविधता का मौन विनाश
अरावली केवल पत्थरों की श्रृंखला नहीं, बल्कि हजारों ज्ञात और अज्ञात प्रजातियों की जननी है। यहाँ तेंदुआ, सियार, लकड़बग्घा, नीलगाय, भेड़िया, जंगली बिल्ली और 200 से अधिक पक्षी प्रजातियाँ पाई जाती हैं। साथ ही, अनेक औषधीय पौधे और स्थानीय वनस्पतियाँ भी इसी पारिस्थितिकी पर निर्भर हैं। पहाड़ियों और जंगलों के नष्ट होने से वन्यजीवों का आवास सिमटेगा और मानव–वन्यजीव संघर्ष बढ़ेगा। अरावली केवल पत्थरों का ढेर नहीं, बल्कि हजारों ज्ञात-अज्ञात प्रजातियों की माँ है।
यहाँ पाए जाते हैं कई प्रजातियाँ अभी तक वैज्ञानिक रूप से पहचानी भी नहीं गई हैं। पहाड़ियों के नष्ट होने से ये प्रजातियाँ हमेशा के लिए विलुप्त हो सकती हैं। यह सब मिलकर आने वाले वर्षों में गंभीर जल संकट, खाद्य असुरक्षा और मानव-वन्यजीव संघर्ष को जन्म देगा।
सिर्फ अरावली की नहीं, भारत की चेतावनी
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि ऊँचाई आधारित यह परिभाषा एक खतरनाक मिसाल है। आज अरावली को “कम ऊँचाई” के आधार पर कमजोर किया जा रहा है, कल यही तर्क अन्य पर्वतमालाओं तक पहुँच सकता है।
“आज अरावली की कोई कीमत नहीं, कल यही सोच हिमालय तक पहुँचेगी।”
अरावली को बचाना केवल पर्यावरण का प्रश्न नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के जीवन, जल और स्वास्थ्य का प्रश्न है।
यदि आज हमने इस दो अरब वर्ष पुरानी धरोहर को नहीं बचाया, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी। वह दिन दूर नहीं जब आने वाली पीढ़ियाँ यह कहती सुनाई देंगी कि कभी यहाँ अरावली पर्वतमाला हुआ करती थी और आज वहाँ केवल खनन, कंक्रीट और तथाकथित विकास के निशान बचे हैं। विकास आवश्यक है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपनी विरासत, धरोहर, वनस्पति और जैव विविधता को खो दें, या उन हजारों वन्य जीवों को बेघर कर दें जिनका अस्तित्व अरावली पर निर्भर है, ताकि वे धीरे-धीरे विलुप्त होकर रेड डाटा बुक के पन्नों में सिमट जाएँ और प्रदूषण का स्तर और भयावह हो जाए। यह समझना आज पूरे देश के लिए अनिवार्य है कि विकास और संरक्षण एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। इस विषय पर भारत को सामूहिक रूप से गंभीर चिंतन करना होगा, और आदरणीय माननीय सर्वोच्च न्यायालय, जो देश का सर्वोच्च न्यायालय है, से भी यह अपेक्षा है कि वह अरावली जैसे संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र के संदर्भ में पुनर्विचार करे, क्योंकि मूक वन्य जीवों, पेड़-पौधों और वनस्पतियों की रक्षा करना भी हमारा नैतिक, सामाजिक और मानवीय धर्म है।
-डॉ. महिपाल सिंह साँखला
असिस्टेंट प्रोफेसर, फॉरेंसिक विज्ञान विभाग, के. आर. मंगलम विश्वविद्यालय, गुरुग्राम









