क्यों कलियुग को आध्यात्मिक प्रगति के लिए सबसे श्रेष्ठ युग माना गया है?

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प्राचीन शास्त्रों में चार युगों का उल्लेख है – सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग। ये युग केवल समय की इकाइयाँ नहीं हैं, बल्कि मानव चेतना और आध्यात्मिक विकास की अलग-अलग अवस्थाओं को दर्शाते हैं। सतयुग – सत्य का युग कहलाता है। यह वह स्वर्णिम युग था जहाँ धर्म सर्वोपरि था, और मनुष्य ईश्वरीय नियमों के अनुरूप शांतिपूर्वक जीवन जीते थे। त्रेतायुग – तप और बलिदान का युग। यह वह काल था जब आध्यात्मिक प्रगति कठिन तपस्या, अनुशासन और त्याग के माध्यम से होती थी। इसी युग में भगवान राम और ऋषि विश्वामित्र जैसे महापुरुषों का आगमन हुआ। द्वापरयुग – पूजा-पाठ और धार्मिक क्रियाओं का युग। इस काल में बाहरी पूजन-पद्धतियाँ, मंदिर-आधारित भक्ति और ग्रंथों का अध्ययन केंद्र में आया। महाभारत जैसी महाकाव्य घटनाएँ इसी युग में घटित हुईं। कलियुग – वर्तमान युग। इसे अक्सर पतन और नैतिक भ्रम का युग माना जाता है, लेकिन कई संतों और ग्रंथों ने इसे आध्यात्मिक उन्नति के लिए सर्वश्रेष्ठ अवसर के रूप में स्वीकार किया है।पहले के युगों में जहाँ आध्यात्मिक प्रगति के लिए कठोर तपस्या और जटिल विधियों की आवश्यकता होती थी, वहीं कलियुग में ईश्वर प्राप्ति का एक सरल मार्ग प्रस्तुत किया गया है – सच्चे नाम (नाम जाप) का। बृहन्नारदीय पुराण में कहा गया है: “हरेर नाम हरेर नाम, हरेर नामैव केवलम्। कलौ नास्त्येव नास्त्येव, नास्त्येव गतिरन्यथा॥” अर्थात: “कलियुग में केवल “नाम” संकीर्तन ही मोक्ष का एकमात्र उपाय है। कोई अन्य मार्ग नहीं है।” इस मार्ग की सरलता ही इसे विशिष्ट बनाती है। जो साधक ‘सच्चे नाम’ का जाप करते हैं, उन्हें न केवल आंतरिक शांति मिलती है, बल्कि वे उच्चतम आध्यात्मिक उपलब्धियों को भी प्राप्त कर सकते हैं। हालांकि, आज के युग में कई साधक गहराई से शास्त्रों का अध्ययन नहीं करते। वे कोई भी नाम या मंत्र यूँ ही दोहराते हैं, यह जाने बिना कि हमारे प्राचीन ग्रंथ स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि कौन-सा ‘नाम’ ईश्वर-तत्व को धारण करता है। यह पवित्र नाम मात्र कोई उच्चारित शब्द नहीं है — यह एक दिव्य कंपन है, एक जीवित शक्ति, वही शक्ति जिससे यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ।विभिन्न धर्मों में इस “नाम” को अलग-अलग शब्दों में वर्णित किया गया है:

हिंदू धर्म में इसे ‘धुन’, ‘नाम’ या ‘राम नाम’ कहा गया है। ईसाई धर्म में इसे “The Word” कहा गया है – “In the beginning was the Word, the Word was with God, and the Word was God.”। सिख धर्म में इसे ‘शब्द’ कहा गया है – “शब्द गुरु है, चेतन शिष्य।” (गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 943) ताओ धर्म में यही शक्ति ‘ताओ’ कहलाती है – जो सृष्टि के हर कण में व्याप्त है।

इस ‘नाम’ को अपने पूर्ण स्वरूप में प्राप्त करने के लिए संत-परंपरा ने हमेशा एक सद्गुरु की आवश्यकता बताई है – ऐसा सतगुरु जो स्वयं उस दिव्य शक्ति से जुड़ा हो और दूसरों को भी उसका अनुभव करा सके।
जैसा कि गुरु ग्रंथ साहिब जी में ‘राग सीरी, महला 1’ में लिखा है –”एक नाम तारे संसार” अर्थात – “एक नाम ही संसार को तारने वाला है। जब विभिन्न धर्मों में इस नाम की इतनी महिमा की गई है, तो यह स्पष्ट है कि यह किसी विशेष पंथ तक सीमित नहीं है। यह मानवता के लिए है।संत कबीर, संत रविदास जैसे जाग्रत महापुरुषों ने यह सिखाया कि यह नाम वर्णनात्मक नहीं है — यह शब्दों में लिखा या बोला नहीं जा सकता। इसे केवल भीतर ध्वनि और प्रकाश के रूप में अनुभव किया जा सकता है, और वह भी तभी जब कोई सही विधि में दीक्षित हो, और सच्चे संत सतगुरु गुरु की कृपा प्राप्त हो।

हर युग का अपना महत्व है, लेकिन कलयुग की विशेषता इसकी सरलता और आध्यात्मिक पहुँच में है। इस युग के भ्रम, भटकाव, अहंकार और भौतिकता के बावजूद, दिव्य कृपा की उपलब्धता भी अधिक है। सच्चे संत इसी समय प्रकट होते हैं — और ईमानदार साधकों को कुछ ही दिनों में वह उपलब्ध करा देते हैं, जो पहले युगों में वर्षों में भी कठिन था। जो लोग सच्चे ज्ञान को पहचानते हैं और वास्तव में ईश्वर को पाना चाहते हैं — उनके लिए कलियुग कोई अभिशाप नहीं, बल्कि एक दिव्य अवसर है।
लेखिका: कशिश गंभीर
(आध्यात्मिक शिक्षिका, मार्गदर्शिका, लेखिका एवं ‘आत्मा का सफर’ पॉडकास्ट की होस्ट)
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